"संदली के जंगल " से आगे . . . . . .
हल्की हल्की कुछ बूंदें , सूरज की नज़र बचाकर
सदाबहार के पत्तों की ओट से,
मेरे हाथ पर आकर मुस्कुराने लगीं थीं ,
उनका असली रंग जो उन्हें मिल गया था,
मेरे हाथों में लगी स्याही का रंग,
वो स्याही जो तुम्हारे गीत लिखते वक़्त
रह गई थी मेरी उँगलियों पर , और
जिसके चेहरे पर तुम्हारे नाम की
महक आज भी ज़िंदा थी
और जो वादी में बिखरी हुई
तुहारी जुल्फों की खुशबू में मिलकर
मंद मंद हिलोरे ले रही थी
सारा आलम मानों तुम्हारे ही
नशे में गुम था ,
मैंने बूंदों से इसका राज़ पूछा
तो उन्होंने मुस्कुराकर ऊपर
बादलों की तरफ इशारा कर दिया
अविरत ,.... ....
20/11/14
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