संदली के जंगल.......
इक रोज़ की बात है,
मैं सुनहरी पर्वत की घाटी की तरफ
बढ़ता चला जा रहा था, सुबह
तुम्हारी यादों के जो गीत बने थे,
उन्हें गुनगुनाता चला जा रहा था
संदली की जंगल से गुज़रते वक़्त ,
नीली नदी के चमकीले पानी पर-
मानो एक तस्वीर सी उभर रही थी ....
"तुम्हारी" वो तस्वीर जिसका जिक़्र,
मैं तुमसे करने आया था उस रोज़
वही तस्वीर जो मैंने बादल के छोटे
टुकड़े पर शब्दों से उकेर दी थी , और
जो तुम तक पहुँच ही नहीं पायी, शायद
नदी किनारे फूलों में भी वही खुशबू थी,
जिसका मखमली एहसास,
उन मोगरे की कलियों में उतर चुका था,
और गुलाबों की पंखुड़ियाँ भी तो,तुम्हारे
शर्मीले गालों का लाल रंग चुरा चुकीं थीं,
मैं अब भी हैरान था की,
जो बात इन सबों से छुपकर,
दूर गगन के पार क्षितिज पर,
तुम्हारे घर के बाहर छोड़ी थी,
आख़िर,
आख़िर- .......
इन तक ये पहुंची कैसे ?
ये सोचते सोचते मेरे पैर थमे ही थे
की अचानक बूंदों ने मेरा ध्यान बँटाया- ..........
अविरत ................
मोहन गोडबोले " साहिल" - २२/१०/१४
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