Tuesday, December 6, 2011

पिघल कर चिपक गई है
 मोम की तरह,
कल फिर सारी रात
 जलती रही है तेरी याद....

जूझती, टूटती, बिखरती, 
आखिरी लौ की तरह..
कल फिर सारी रात
जलती रही है तेरी याद...

अनकहे, अनछुए, धुंधले 
सपनों की तरह ..
पलकों पे उलझती 
सुलझती रही है तेरी याद....

तेरे सपनों की 
सुगबुगाहट की आस में..
सारी रात करवटें 
बदलती रही है तेरी याद....

रात भर दरीचों से ताकती 
तेरे इंतजार में,बिखर कर
सुबह की ओस हो गई है तेरी याद...
 
पिघल कर चिपक गई है
 मोम की तरह..................................,
 
-- मोहन गोडबोले(साहिल)  २५/११/२०११ 

Saturday, October 15, 2011

मेरा पहला हिंglish प्रयास

ज़िन्दगी बहुत आसान है, इसे COMPLICATE  मत करो ,
सांस लेने     दो खुली हवा में, रिश्तों से SUFFOCATE  मत करो,

इसे सींचने को दो खुशियों का URIA ,
  जड़ों में हिंसा का AMONIUM  NITRATE  मत भरो,||१||

ज़िन्दगी बहुत आसान है, इसे COMPLICATE मत करो...... ,

DILUTE  ही चढ़ने दो जीवन में प्यार का नशा,
इर्ष्या और द्वेष से CONCENTRATE  मत करो||२||  .

ज़िन्दगी बहुत आसान है, इसे COMPLICATE मत करो ,

उम्मीद  के CURRENT  को हमेशा DIRECT  ही रहने  दो.
दुःख के समय भी इसको ALTERNATE   मत करो.||३||

ज़िन्दगी बहुत आसान है, इसे COMPLICATE मत करो ,

मौका ज़िन्दगी में दोबारा ज़रूर मिलता है.
 इस बार पहचानने में तुम LATE  मत करो.||४||

ज़िन्दगी बहुत आसान है, इसे COMPLICATE मत करो ,
  
'साहिल' यही सलीक़ा है , ज़िन्दगी को जीने का .
बस अब मान लो तुम इस बात को और DEBATE  मत करो ..||५||

ज़िन्दगी बहुत आसान है, इसे COMPLICATE मत करो ,
सांस लेने दो खुली हवा में, रिश्तों से SUFFOCATE मत करो,

                                                                                                         मोहन गोडबोले (साहिल)- ०९-१०-११

Wednesday, August 3, 2011

आखिर ऐसा क्यूँ है ??????

रब्बा,
तेरी इस दुनिया में ये मंजर क्यूँ है, 
कहीं ज़ख्मो पे मरहम कहीं पीठ में खंजर क्यूँ है ??

सुना है के तू हर ज़र्रे में है रहता,
तो फिर इस ज़मीं पे कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है ?

जब रहने वाले इस दुनिया के हैं तेरे ही बन्दे,
तो फिर कोई किसी का दोस्त और कोई दुश्मन क्यूँ है?

जब नहीं नकार सकी है दुनिया तेरे इस वजूद को,
तेरे होने से फिर कहीं पकी फसल तो कहीं ज़मीं बंजर क्यूँ है?

कहते हैं की तू बनाता है लोगों का मुक़द्दर,
 तो फिर कोई बदनसीब और कोई मुकद्दर का सिकंदर क्यूँ है?

आखिर ऐसा क्यूँ है???


मोहन गोडबोले:
( अन्तरिक्ष भाई के मेसेज से साभार अवतरित ) 

Thursday, March 17, 2011

मै अपने आप से घबरा गया हूँ,
          मुझे ऐ ज़िन्दगी दीवाना कर दे ,

बड़े ही शौक से इक ख्वाब में खोया हुआ था मै ,
    अजब मस्ती भरी इक नींद में सोया हुआ था मै,

खुली जब आँख तो थर्रा गया हूँ ,थर्रा गया हूँ ,


मै अपने आप से घबरा गया हूँ,
          मुझे ऐ ज़िन्दगी दीवाना कर दे ,


कहाँ से ये फरेब-ए-आरजू मुझको कहाँ लाया,
जिसे मैं पूजता था आज तक, निकला वो इक साया ,
खता दिल की है ,मैं शर्मा गया हूँ शर्मा गया हूँ 

मै अपने आप से घबरा गया हूँ,
          मुझे ऐ ज़िन्दगी दीवाना कर दे ,
 

Monday, February 21, 2011

कभी सोचता हूँ की क्या हूँ मैं .......?

कभी सोचता हूँ की क्या हूँ मैं .......?

कभी सोचता हूँ की क्या हूँ मैं ,
  बस इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ हूँ मैं,

कभी रिंद, कभी साक़ी कभी मयकदा हूँ ,
   कभी बेफिक्रों की तरह उडता धुआं हूँ मैं,

कोई रिश्ता कोई बंधन कोई नाता हूँ ,
 या ऐसी ही किसी डोर से बंधा हुआ हूँ मैं ,

कोई दे देता है खुश होकर या कोई देता है खफा होकर  ,
 शायद कोई दुआ या कोई बद्दुआ हूँ मैं ,

चमकना था मुझे जगमगाते सितारों की मानिंद ,
  सूरज की रौशनी में ही धुंधला हुआ हूँ मैं..

कभी सोचता हूँ की क्या हूँ मैं ,
  बस इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ हूँ मैं,


कभी सोचता हूँ की क्या हूँ मैं..................

                                                            मोहन गोडबोले (साहिल)  :- २१/२/२०११ 

Wednesday, January 19, 2011

  !! क्या मुझमे एह्तेजाज की ताक़त नहीं रही, पीछे की सिम्त  किसलिए  हटने लगा हूँ मैं,
      तुमने भी ऐतबार की चादर समेट ली, शायद ज़बान दे के पलटने लगा हूँ मैं !!

एह्तेजाज: विरोध, प्रतिकार
सिम्त: दिशा

Thursday, January 6, 2011

"जीवन क्या है ? "

 "जीवन क्या है ? "

कभी सोचता हूँ की जीवन क्या है, पल दो पल का आना जाना,
सांसो के इस फेर में बुनते, हम रिश्तों का ताना बाना ||

पल में यादों के बंधन बंधते, पलक झपकते हाथ छूटते,
देर नहीं लगती थोड़ी भी, हमराही का साथ छूटते ||

कल तक जो लगता था अपना, आज हुआ एक हसीन सपना,
सपनों की इस रंगीं दुनिया में क्या खोना और कैसा पाना,
जो अभी है पास तुम्हारे, एक दिन है सबकुछ मिट जाना ||

कब तक सहेज कर ओस को , पतझड़ के पत्तों पर रखते,
तेज हवा के झोंके से नहीं, बच सकते झड़ने से पत्ते,

जीवन के अंतिम पड़ाव पर राही कब मंजिल पता है,
छोड़ रिश्तों के बंधन सारे , दूर अकेला निकल जाता है ||


कभी सोचता हूँ की जीवन क्या है, पल दो पल का आना जाना,
सांसो के इस फेर में बुनते हम रिश्तों का ताना बाना ...............

                                                                              मोहन गोडबोले -" साहिल" : ११-०५-२००३