कभी यूँ हीं तुमसे मिलता हूँ,
स्याह रातों आगोश में
ख्वाबों की उजली नगरी में ,
बादलों के पार जो तुम्हारा घर है,
इक दिन वहां जाना हुआ,
तुम शायद वहां नहीं थीं,
क्यूंकि सूरज आज मद्धम जल रहा था,
बरामदे में लगी हुई तारों की क्यारियाँ,
जो रात भर की अठखेलियों के बाद
सुबह की दस्तक पर अलसाई सी थीं,
मुझे देखते ही पूछ बैठीं,
"कहो किससे मिलना है?"
मेरे जवाब को सुने बिना खुद ही बोल पड़ी -
"मैडम घर पर नहीं हैं, संदेसा छोड़ दो"
फिर उन तारों की क्यारियों में अटका
एक बादल का छोटा टुकड़ा उठाकर
मैंने अपने मन की बात लिख डाली,
अभी आगे हाथ बढ़ाया ही था की
अचानक से बिजली की बदमाश किरन
मेरे हाथ से बादल का टुकड़ा छुड़ाकर
मुझे चिढ़ाती हुई दूर भागने लगी …
contd.............