अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद,
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना,
क्यूंकि जब भी एहसासों की हदें लाँघकर
तेरी यादों की जानिब बेसाख़्ता बढ़ता जाता हूँ,
कदम दर कदम गहराती जाती हैं,
हर उस लम्हे की परछाइयां,
जो हमने बिताएं हैं, एक दूसरे के दिल की
देहलीज़ पर बैठकर,
यूँ भी कई बार तुमसे
ख्वाबों में मिलने की कोशिश में,
यादों के पिटारे को ठोकर मारकर,
बेवजह गिराया है , दिल की जमीं पर मैंने,
जाने क्या बात है कि वो जगह अब भी नम है,
जहाँ गिरी हैं तेरी यादें,
वो सारे मौसम जो हमारे साथ गुजरे हैं
इन गुज़िश्ता सालों में,
पलट-पलट के लौट आते हैं,
कभी हवा, कभी खुश्बू ,कभी बारिश,
तो कभी तितली बनकर,
फिर उसके बाद आता है, एक तन्हाई का काला बादल
और छा जाता है उस "साहिल" पर,
जहाँ एहसासों की रेत पर,
तेरी यादों के मौसम धूप सेंक रहे होते हैं,
अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद,
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना,
क्योंकि बेचैन करते हैं मुझे,
ज़ेहन में उठते बेबसी के बवंडर,
जिनमे उड़ जाते हैं मेरे ख्वाबों के हसीं पन्ने,
मेरी चाहत की सारी किताबें,
अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद,
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना,
कि अब मैं कैसे समझाऊं जग को
भरम अपने रिश्ते का,
जो रेशम की डोर में लगी गाँठ के जैसा है,
अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद,
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना,
कि अब दुश्वार सा लगता है,
तुझसे फासले रखकर, तुझे अपनाना
तेरा न होकर भी तेरा ही कहलाना
अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद ..............
साहिल- २०-८-१७