Sunday, November 19, 2017

मैंने ज़िदगी की ख़ुशियाँ तुम्हारी आँखों में देख़ने की जुर्रत की

मुझे माफ़ कर सको तो करो


मैंने हर साँस तुम्हारी साँसों के साथ लेने की कोशिश की

मुझे माफ़ कर सको तो करो

मुझे अपने दिल के ज़ख्मों पर तुम्हारी छुअन की ज़रूरत थी

मुझे माफ़ कर सको तो करो

मैं के रिश्ते में बेईमान रह गया
मुझे माफ़ कर सको तो करो

मेरी सारी बद्तमीज़ियों के लिए
मुझे माफ़ कर सको तो करो

मैं अपने वचन पर टिक न पाया
मुझे माफ़ कर सको तो करो

मैं के माफ़ी के क़ाबिल भी नहीं मगर फिर भी
मुझे माफ़ कर सको तो करो

तड़पना, जलना और आहें भरना मेरा मुक़द्दर है,
तुम्हारी बांहों में,
 मैं ये सब भूल गया था,
मुझे माफ़ कर सको तो करो

मुझे माफ़ कर सको तो करो...

Wednesday, September 6, 2017

अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद, तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना


अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद, 
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना, 

क्यूंकि जब भी एहसासों की हदें लाँघकर 
तेरी यादों की जानिब बेसाख़्ता बढ़ता जाता हूँ,
कदम दर कदम गहराती जाती हैं,
हर उस लम्हे की परछाइयां,
जो हमने बिताएं हैं, एक दूसरे के दिल की 
देहलीज़  पर बैठकर,

 यूँ भी कई बार तुमसे
 ख्वाबों में मिलने की कोशिश में,
 यादों के पिटारे को ठोकर मारकर,
 बेवजह गिराया है , दिल की जमीं पर मैंने,
 जाने क्या बात है कि वो जगह अब भी नम है,
 जहाँ गिरी हैं तेरी यादें,

वो सारे मौसम जो हमारे साथ गुजरे हैं 
इन गुज़िश्ता सालों में,
पलट-पलट के लौट आते हैं,
कभी हवा, कभी खुश्बू ,कभी बारिश,
तो कभी तितली बनकर,
फिर उसके बाद आता है, एक तन्हाई का काला बादल
और छा जाता है उस "साहिल" पर,
जहाँ एहसासों की रेत पर,
तेरी यादों के मौसम धूप सेंक रहे होते हैं,

अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद, 
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना, 

क्योंकि बेचैन करते हैं मुझे,
ज़ेहन में उठते बेबसी के बवंडर,
जिनमे उड़ जाते हैं मेरे ख्वाबों के हसीं पन्ने,
मेरी चाहत की सारी किताबें,

अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद, 
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना, 

कि अब मैं कैसे समझाऊं जग को
भरम अपने रिश्ते का, 
जो रेशम की डोर में लगी गाँठ के जैसा है,

अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद, 
तेरी यादों से मुख़्तलिफ़ रहना, 

 कि अब दुश्वार सा लगता है, 
तुझसे फासले रखकर, तुझे अपनाना 
तेरा न होकर भी तेरा ही कहलाना 

अब मुझे सीखना पड़ेगा शायद ..............

साहिल- २०-८-१७   
   

Sunday, January 15, 2017

मैं तुम्हारा गुनहगार नहीं हूँ .....


मैं तुम्हारा गुनहगार नहीं हूँ .....

मैं ख़ुद का गुनहगार हूँ,
तुमने शायद सबकुछ मुझे सौंपा होगा,
अपनी वेदना, पीड़ा, दुख, संयम सब,

मुझमें तुमने शायद उन जख्मों का इलाज भी ढूंढा होगा,
जो बेवजह ज़िंदगी ने तुम्हारी झोली में डाले थे,

तुम्हें शायद मेरे सूकूत पर
मुझसे से भी ज्यादा यक़ीं था,

पर मैं तो पुरुष हूँ न,
मेरे बस में कहाँ कि मैं
स्त्रीमन की पवित्रता को समझ पाता,

उसकी निश्छल सहृदयता को समझ पाता,

शायद तुम्हें लगा कि मैं एक लोभी की तरह
 तुम्हारा वरण करना चाहता हूँ,
तुमने वही समझा...शायद!

पर ऐसा नहीं था सच कहूं तो,
कुछ पुरुष सच्चे होते हैं,
कुछ पुरुष सच्चे भी होते हैं,

मैं उन दोनों श्रेणियों के बीच अटका सा रहा,
तुम उन दोनों श्रेणियों के समपार से आगे न जा सकीं।

क्योंकि आखिर में मैं पुरूष जो ठहरा !!!
साहिल २५/९/१६