Tuesday, October 30, 2012


"आलम ऐ वक़त ऐ फुर्सत की जानिब से "

कुछ अजीब संगीन  सी हो चली है ज़िन्दगी
वो ही धड़कने वो ही साँसे, वो ही आरज़ू वो हो ख्वाहिशें 
वो ही जुस्तजू वो ही उलझनें ,वो ही कश्मकश  और वो ही सिलसिले 
दिल ही तो है कोई कांच का खिलौना नहीं,
 टूटे बिखरे तो भी जंचता अब  रोना नहीं 
वो ही मुद्दतों का इंतज़ार, बार बार हर बार लगातार 
वो ही कोशिशें वो ही हसरतें ,वो ही दिल के जख्मो पे पड़े जाले 
वो ही बंदिशें वो ही फुरसतें ,वो ही अँधेरे और वो ही उजाले 
वो ही आईने वो ही सूरतें, वो ही चलती फिरती इंसानी मूरतें 
वो ही सुबहें वो ही शामें , वो ही घनघोर बादल मतवाले 
डोर नाज़ुक महीन सी हो चली है ज़िन्दगी ..

वो ही तमन्नाओं का टुटा हुआ सितारा 
वो ही पागल मन बंजारा आवारा,
वो हर किसी की आँखों में, शिकायतों का मौसम 
वो ही थके से क़दमों के सदाएं देते छाले 
वो बेहिसाब फ़िक़रे वो बे हिसाब ताने 
वो भरे भरे से मैक़द और वो ख़ाली ख़ाली प्याले ,
वो बेक़रार सासें  वो ही इंतज़ार उनका 
वो झूठे मूठे शिकवे और वो झूठे मूठे नाले 
कुछ अजीब रंगीन सी हो चली है ज़िन्दगी 


मोहन गोडबोले (साहिल)
31/10/2012