मोहन गोड़बोले "साहिल "
साहिल यानि किनारा
पता है किनारे की सबसे खास बात क्या होती है, वो नदी का साथ कभी नहीं छोड़ता,
नदी चाहे शांत समंदर का ठहराव लिए हो, या उफ़न कर सब बहा ले जाने को आतुर हो, साहिल हमेशा उसे संभाले रखता है।
नदी जब बरसात में अपने पूरे शबाब पर होती है महीने दो महीने, या पूरे साल दूसरे छोर से सटकर बहती हो, या बीच में एक पतली सी रेखा जैसी बहती हो धीमे धीमे लेकिन निरंतर...
वो पतली रेखा ही उस साहिल की जीवन रेखा होती है, उसका एक सिरा चाहे अछूता ही क्यूँ न रहे उम्र भर पर उसे सुकून होता है की वो नदी का हिस्सा है।
कुछ नदियाँ कभी कभार विलुप्त हो जाती हैं, तब किनारा उसकी याद में पत्थर बनकर भी टिका रहता है, वो उस नदी के अस्तित्व को मिटने नहीं देता।
ऐसी ही किसी 'शीतल' नदी का किनारा हूँ मैं शायद...
जो नदी का रुख़ मुड़ने के बावजूद , उसके बहने के पुराने रास्ते को सहेजे हुवे दिन-ब-दिन
बस पत्थर होता जा रहा है,
नदी के गुज़रने का संगीत अपने दिल में समाये हुवे, समाधी में मग्न है,
किनारा सदा से नदी का था...
'साहिल' सदा नदी का ही रहेगा..
बरसाती या मौसमी नदी कभी उसे, अपनी जीवन रेखा से दूर न ले जा सकेगी..
पार्श्व में सज्जाद अली गा रहे हैं
"साहिल" पे खड़े हो तुम्हे क्या ग़म चले जाना
मैं डूब रहा हूँ अभी डूबा तो नहीं हूँ....