Sunday, January 15, 2017

मैं तुम्हारा गुनहगार नहीं हूँ .....


मैं तुम्हारा गुनहगार नहीं हूँ .....

मैं ख़ुद का गुनहगार हूँ,
तुमने शायद सबकुछ मुझे सौंपा होगा,
अपनी वेदना, पीड़ा, दुख, संयम सब,

मुझमें तुमने शायद उन जख्मों का इलाज भी ढूंढा होगा,
जो बेवजह ज़िंदगी ने तुम्हारी झोली में डाले थे,

तुम्हें शायद मेरे सूकूत पर
मुझसे से भी ज्यादा यक़ीं था,

पर मैं तो पुरुष हूँ न,
मेरे बस में कहाँ कि मैं
स्त्रीमन की पवित्रता को समझ पाता,

उसकी निश्छल सहृदयता को समझ पाता,

शायद तुम्हें लगा कि मैं एक लोभी की तरह
 तुम्हारा वरण करना चाहता हूँ,
तुमने वही समझा...शायद!

पर ऐसा नहीं था सच कहूं तो,
कुछ पुरुष सच्चे होते हैं,
कुछ पुरुष सच्चे भी होते हैं,

मैं उन दोनों श्रेणियों के बीच अटका सा रहा,
तुम उन दोनों श्रेणियों के समपार से आगे न जा सकीं।

क्योंकि आखिर में मैं पुरूष जो ठहरा !!!
साहिल २५/९/१६

2 comments:

  1. दिल को छू गई आपकी कविता सहज मन हृदय से निकलने वाली वेदना है

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